पुराने ज़माने में जब भी कोई राजा किसी राज्य पर चढ़ाई करता तो सबसे आगे अफवाह फैलाने वाले क़ारिंदे जाते, फिर उनके पीछे कुछ गुप्तचर। इसके कुछ किलोमीटर पीछे सैनिक टोली होती। इसमें भी सबसे आगे कुछ घुड़सवार, फिर नाचने गाने वाले, ढोल, ताशे पीटने वाले और फिर मुख्य सैन्य दल। मुख्य दल में आगे राजा या सेनापति, फिर सेना, तोपख़ाना, रसद, मज़दूर, रसोईदल, सफाई दल, हकीम, वैद्य वग़ैरह। यह सब बाक़ायदा तनख़्वाह पाने वाले या भाड़े पर तय किए गए लोग होते थे।
लेकिन फौज के आख़िर में एक टोली और चलती थी । इनको न पैसा मिलता और न कोई मेहनताना, लेकिन ये साए की तरह हर सेना से थोड़ी दूरी बनाकर चलते और हर जगह युद्ध की ख़बर सूंघते हुए पहुंच जाते।
मध्य एशिया में इनको ख़ोस या कफनखसोट कहा जाता था।
इनका काम क्या था?
जंग होती, हारा दल मैदान से भाग जाता या बंदी बना लिया जाता। जीता हुआ दल राजधानी और संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने आगे बढ़ जाता। विजेता शवों को वहीं दफ्न कर जाते, दाह-संस्कार कर जाते या ऐसे ही छोड़कर भी आगे बढ़ जाते। यहां से ख़ोसों का काम शुरू होता । ख़ोसे लाशों के शरीर पर मौजूद कवच और अंगूठियां नोचते, मैदान में लावारिस रह गए सामान खोजते, यहां तक कि टूटी तलवारें और दूसरे सामान भी न छोड़ते। जो ज़्यादा चालाक होते वह मरने वाले का पता खोजकर उसके घर निशानी लेकर पहुंच जाते। इसके लिए लूट के अलावा कुछ ईनाम भी पा जाते।
उत्तर भारत अनादिकाल से लाखों छोटे बड़े युद्धों का गवाह रहा है। महाभारत को भी जंग मान लें तो 1857 आते आते पश्चिम, उत्तर और मध्य भारत का कोई ज़िला बचा होगा जिसने कोई जंग न देखी हो ।
इसका नतीजा क्या हुआ ?
लड़ने वाले मैदानों में मर गए। बचे उनके बच्चे, किसान, कुछ कारोबारी, कुछ कर्मचारी या फिर कुछ पेशेवर, मज़दूर जातियां और क़बायली।
बाक़ी?
बाक़ी सब खोसे हैं।
इनकी पहचान?
जब आपदा आएगी तो घरों में सामान खोजते मिलेंगे। लाशों के ज़ेवर नोचते मिलेंगे। बीमारी फैलेगी तो दवा, ऑक्सीजन ब्लैक करेंगे। एंबुलेंस के दाम बढ़ा देंगे। मजबूरी का पूरा-पूरा फायदा उठाएंगे। लूटेंगे, खसोटेंगे, मुनाफाख़ोरी करेंगे, ठगी करेंगे और जहां मौत का तांडव चल रहा होगा, वहां जश्न मनाएंगे। इस काम में अमीर, ग़रीब, जाहिल, पढ़े-लिखे सब शामिल होते हैं।
ये गुण भारत की नब्बे फीसदी आबादी में है। यहां वही नेक है जिसे मौक़ा नहीं है। संस्कृति का घंटा बजाते रहिए मगर ये ख़ोसों का मुल्क है। ऐसे ख़ोसे जो मौत का इंतज़ार करते हैं और मरने पर सामूहिक भोज करते हैं।
लेखक- रजनीश मिश्र
वर्तमान संदर्भ में सटीक बैठता है!अच्छा लिखा है सर आपने!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार🙏
Delete"...इस काम में अमीर, ग़रीब, जाहिल, पढ़े-लिखे सब शामिल होते हैं”..best part of this Article
ReplyDeleteधन्यवाद 🙏
DeleteKya baat bole ho bahot achha laga mujhe sari line 👌💯✅
ReplyDeleteDhanyavaad🙏
DeleteVery true.. Good Article
ReplyDeleteThank you🙏
DeleteAwesome article sir🥰🥰🥰.
ReplyDeleteReally u r good teacher sir and u r good writer
Thank you dear. 😎
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