Thursday, June 24, 2021

हम आज़ादी से डरते क्यूं हैं? Rajnish Mishra

Rajnish Mishra                                               


                                   आज़ादी



हम आज़ादी से डरते क्यूं हैं?


कोई भी इंसान किसी बंधन में इसलिए नहीं फंसा होता क्योंकि वो आज़ाद नहीं हो सकता। दरअसल वो इसलिए बंधन में फँसा होता है क्योंकि वो आज़ादी से डरता है। आज़ाद होते ही आपको फैसले लेने पड़ते हैं। अपनी धुंधली योजनाओं को स्पष्ट कर ज़मीन पर उतारना पड़ता है। अपनी ज़िंदगी की बागडोर खुद संभालनी पड़ती है और किसी भी चीज़ के लिए कसूरवार ठहराने के लिए कोई बचता नहीं। और इस सबके बावजूद कामयाबी की कोई गारंटी नहीं। ये सब जोखिम भरा है। इसलिए हम वो काम करते हैं जो ज़्यादातर दुनिया करती है या कहती है। 


जब छोटे थे तो किसी ने कहा ये कोर्स कर इसमें स्कोप है, तो वो कोर्स कर लिया। ऐसे ही फिर नौकरी चुन ली और आज भी बहुत सारे ऐसे ही अपना  जीवनसाथी भी चुन लेते हैं। 25 का होने तक इंसान अपने जीवन से जुड़ा एक भी फैसला ऐसा नहीं बता सकता जिसके बारे में वो कह सके कि ये मेरा था। कुलमिलाकर आज़ादी मन में एक ख्वाहिश की तरह पलती तो रहती है मगर इसको पूरा करने से हम डरते भी हैं। हम डरते हैं क्योंकि हम हमेशा डरते-डरते बड़े होते हैं। डरते-डरते बड़े किए जाते हैं। 


कोई फर्क नहीं पड़ता अगर बच्चे को टॉप टेन स्कूल में एडमिशन नहीं मिला। आपको भी कहां मिला था! आप भी तो गली-मोहल्ले के स्कूल में पढ़कर भी ज़िंदगी में कुछ कर ही गए न। तो बच्चे भी कर जाएंगे। खेल लेने दीजिए उसे खिलौने से जैसे नहीं खेला जाता। उसके गिरने, चोट खाने और पीछा रह जाने को लेकर घबराइए मत। हिदायतें इंसान को सुरक्षा नहीं देती उसे दब्बू बना देती हैं। 


कहते हैं तितली का बच्चा जब इस दुनिया में आता है तो कोकून से बाहर आने के लिए संघर्ष करता है। ये संघर्ष उसे अकेले ही करना पड़ता है। अगर कोई बाहर आने के लिए उसकी मदद करे, तो वो मर जाता है। क्योंकि कोकून से बाहर आने की इस कोशिश में उसके पंखों को ताकत मिलती है! और उसकी मदद की जाए, तो वो मर सकता है।


जॉर्ज बर्नाड शॉ ने एक दफा कहा था कि जो भी इंसान जीवन में बहुत संघर्ष करके ऊपर उठता है, कामयाब होता है और कल को मां-बाप बनता है तो पहली बात वो यही कहता है कि मैं नहीं चाहूंगा कि मेरे बच्चों को वो संघर्ष करना पड़े जो सब मैंने किया। मगर ये सब सोचते हुए वो ये भूल जाता है कि आज वो जो कुछ भी है अपने उन्हीं संघर्षों की वजह से ही है। उसकी शख्सियत में जो आत्मविश्वास जो तेज है वो उन स्थितियों से निपटने के कारण ही आया है।


सुविधाओँ को तश्तरी में परोसकर देना नहीं, बल्कि अँजान रास्तों पर चलने का हौसला और छूट देना ही सच्चा प्यार है ताकि बच्चा कल को आज़ादी की शिकायत करते हुए उससे ही डरते हुए जीवन न बिता दे।


- Rajnish Mishra.

Saturday, May 8, 2021

समय चक्र

 पुराने ज़माने में जब भी कोई राजा किसी राज्य पर चढ़ाई करता तो सबसे आगे अफवाह फैलाने वाले क़ारिंदे जाते, फिर उनके पीछे कुछ गुप्तचर। इसके कुछ किलोमीटर पीछे सैनिक टोली होती। इसमें भी सबसे आगे कुछ घुड़सवार, फिर नाचने गाने वाले, ढोल, ताशे पीटने वाले और फिर मुख्य सैन्य दल। मुख्य दल में आगे राजा या सेनापति, फिर सेना, तोपख़ाना, रसद, मज़दूर, रसोईदल, सफाई दल, हकीम, वैद्य वग़ैरह। यह सब बाक़ायदा तनख़्वाह पाने वाले या भाड़े पर तय किए गए लोग होते थे।


लेकिन फौज के आख़िर में एक टोली और चलती थी । इनको न पैसा मिलता और न कोई मेहनताना, लेकिन ये साए की तरह हर सेना से थोड़ी दूरी बनाकर चलते और हर जगह युद्ध की ख़बर सूंघते हुए पहुंच जाते।


मध्य एशिया में इनको ख़ोस या कफनखसोट कहा जाता था।

इनका काम क्या था?

जंग होती, हारा दल मैदान से भाग जाता या बंदी बना लिया जाता। जीता हुआ दल राजधानी और संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने आगे बढ़ जाता। विजेता शवों को वहीं दफ्न कर जाते, दाह-संस्कार कर जाते या ऐसे ही छोड़कर भी आगे बढ़ जाते। यहां से ख़ोसों का काम शुरू होता । ख़ोसे लाशों के शरीर पर मौजूद कवच और अंगूठियां नोचते, मैदान में लावारिस रह गए सामान खोजते, यहां तक कि टूटी तलवारें और दूसरे सामान भी न छोड़ते। जो ज़्यादा चालाक होते वह मरने वाले का पता खोजकर उसके घर निशानी लेकर पहुंच जाते। इसके लिए लूट के अलावा कुछ ईनाम भी पा जाते।


उत्तर भारत अनादिकाल से लाखों छोटे बड़े युद्धों का गवाह रहा है। महाभारत को भी जंग मान लें तो 1857 आते आते पश्चिम, उत्तर और मध्य भारत का कोई ज़िला बचा होगा जिसने कोई जंग न देखी हो । 

इसका नतीजा क्या हुआ ?

लड़ने वाले मैदानों में मर गए। बचे उनके बच्चे, किसान, कुछ कारोबारी, कुछ कर्मचारी या फिर कुछ पेशेवर, मज़दूर जातियां और क़बायली।

बाक़ी?

बाक़ी सब खोसे हैं।

इनकी पहचान?

जब आपदा आएगी तो घरों में सामान खोजते मिलेंगे। लाशों के ज़ेवर नोचते मिलेंगे। बीमारी फैलेगी तो दवा, ऑक्सीजन ब्लैक करेंगे। एंबुलेंस के दाम बढ़ा देंगे। मजबूरी का पूरा-पूरा फायदा उठाएंगे। लूटेंगे, खसोटेंगे, मुनाफाख़ोरी करेंगे, ठगी करेंगे और जहां मौत का तांडव चल रहा होगा, वहां जश्न मनाएंगे। इस काम में अमीर, ग़रीब, जाहिल, पढ़े-लिखे सब शामिल होते हैं।


ये गुण भारत की नब्बे फीसदी आबादी में है। यहां वही नेक है जिसे मौक़ा नहीं है। संस्कृति का घंटा बजाते रहिए मगर ये ख़ोसों का मुल्क है। ऐसे ख़ोसे जो मौत का इंतज़ार करते हैं और मरने पर सामूहिक भोज करते हैं।

लेखक- रजनीश मिश्र